हिमाचल प्रदेश में कुछ ही समय के भीतर कई विश्वविद्यालयों के कुलपतियों द्वारा पद छोड़ने का मामला चर्चा में है। इसके पीछे मूल कारण राज्य सरकार द्वारा कुलपतियों की योग्यता की जांच करना है। केवल हिमाचल ही नहीं, देश के अलग-अलग हिस्सों में सरकारी और प्राइवेट, दोनों तरह के विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की योग्यता को लेकर सवाल उठते रहे हैं, कई मामले कोर्ट में भी हैं। यहां योग्यता का शब्द का संबंध उस न्यूनतम तकनीकी अर्हता से है जिसका निर्धारण यूजीसी द्वारा किया गया है। यूजीसी कहती है कि वही व्यक्ति कुलपति बन सकता है जो प्रोफेसर के तौर पर न्यूनतम दस वर्ष की सेवा कर चुका हो, शोध और शैक्षिक प्रबंधन के क्षेत्र में बड़ा नाम हो और उसकी उम्र 70 साल से ज्यादा न हो।
बाहरी तौर पर देखने पर इन योग्यताओं में किसी प्रकार के घालमेल की आशंका नहीं दिखती, लेकिन राज्य सरकारों और कुछ निजी विश्वविद्यालयों के संचालकों द्वारा अक्सर नियमों का शीर्षासन करा दिया जाता है। इसका उदाहरण यह है कि कई राज्यों में किसी नए विश्वविद्यालय का पहला कुलपति नियुक्ति करने का अधिकार सरकार अपने पास रखती है। पहले कुलपति के मामले में प्रायः न्यूनतम योग्यताओं का पालन नहीं किया जाता। राजनीतिक सुभीते और फायदे के लिए किसी को भी जिम्मा सौंप दिया जाता है। यदि पहला कुलपति ही कोई राजनीतिक व्यक्ति हो तो फिर अनुमान लगा सकते हैं कि संबंधित विश्वविद्यालय की भविष्य की संभावनाएं कैसी होंगी।
भले ही यूजीसी उच्च शिक्षा के नियमन की सर्वोच्च संस्था है, लेकिन राज्य सरकारें अकादमिक मामलों में भी उसके आदेशों, रेगुलेशनों को तुरंत लागू नहीं करती। मसलन, यूजीसी ने कुलपति की उम्र 70 साल तय की है, जबकि अलग-अलग राज्यों में कहीं 65 साल और 68 का मानक लागू है। यही स्थिति कुलपति के कार्यकाल को लेकर है। यूजीसी कहती है कि पांच साल का कार्यकाल होगा, लेकिन राज्य सरकारें अभी तीन साल के कार्यकाल पर ही अटकी हुई हैं। प्राइवेट विश्वविद्यालयों के संबंध में वे ही नियम लागू होने चाहिए जो संबंधित राज्यों में सरकारी विश्वविद्यालयों पर लागू होते हैं, लेकिन कई प्राइवेट विश्वविद्यालय यूजीसी के नियमों को सीधे लागू कर लेते हैं, जो कि गलत है। इस कारण भी विसंगति पैदा होती है।
एक विसंगति दस वर्ष की प्रोफेसरशिप या समान पद की अर्हता को लेकर भी है। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि प्रोफेसर के पद की समानता किसी वैज्ञानिक के पद से तो सकती है, लेकिन इसकी समानता किसी आईएएस, आईपीएस या सेना अधिकारी के पद से नहीं हो सकती। जबकि, अनेक विश्वविद्यालयों में अब भी गैर-अकादमिक लोग कुलपति के तौर पर काम कर रहे हैं। निजी विश्वविद्यालयों में स्थिति और भी चिंताजनक है। कुछ मामलों में किसी को भी कुलपति बना देने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। यदि देश भर में मौजूदा कुलपतियों की न्यूनतम अर्हता को देखा जाए तो अनेक ऐसे मामले सामने आएंगे, जहां अर्हता के मामले में नियमों का पालन नहीं हुआ है।
गौतलब है कि देश में विश्वविद्यालयों की संख्या बढ़ रही है और इसके साथ ही कुलपति चयन में गड़बड़ी और धांधली के मामले भी बढ़ते जा रहे हैं। एआईएसएचई की वर्ष 2020-21 की रिपोर्ट के अनुसार देश में 1100 से अधिक विश्वविद्यालय हैं और इनमें हर साल 70 विश्वविद्यालय और बढ़ रहे हैं। इसी आधार पर उम्मीद लगाई जा रही है कि वर्ष 2030 तक यह संख्या 1800 तक पहुंच सकती है। इतनी बड़ी संख्या में विश्वविद्यालय होना कोई बड़ी बात नहीं है क्योंकि भारत सरकार उच्च शिक्षा में मौजूदा ग्रॉस एनरोलमेंट रेशियो (जीईआर) को 27 प्रतिशत से बढ़ाकर 50 प्रतिशत करना चाह रही है। इस लक्ष्य के लिए जब नए विश्वविद्यालय खुलेंगे तो और अधिक संख्या में कुलपतियों की जरूरत होगी। केंद्रीय विश्वविद्यालयों में कुलपतियों का कार्यकाल पांच साल और राज्य विश्वविद्यालयों में तीन साल निर्धारित है। इसके दृष्टिगत देखें तो देश में इस वक्त हर साल 400 से अधिक नए कुलपतियों की जरूरत होती है। यह संख्या संघ लोक सेवा आयोग द्वारा प्रतिवर्ष चुने जाने वाले आईएएस अधिकारियों की तुलना में दोगुनी से भी अधिक है।
अब सवाल यह है कि इस चुनौती का समाधान क्या है ताकि सभी विश्वविद्यालय, चाहे वे सरकारी हों या प्राइवेट, उनका नेतृत्व योग्य हाथों में रहे। कई लोग ऐसा विचार भी रखते हैं कि कुलपतियों के लिए भी अखिल भारतीय स्तर पर लिखित मूल्यांकन (इसे लिखित परीक्षा करना गरिमापूर्ण नहीं होगा!) और इंटरव्यू की प्रक्रिया लागू करनी चाहिए। इसके जरिए अखिल भारतीय स्तर का पैनल बनाया जाए। इस पैनल में उन सभी प्रोफेसरों और शिक्षाविदों को शामिल किया जाए जो लिखित मूल्यांकन और इंटरव्यू में सफल हुए हैं, पैनल में शामिल लोगों की संख्या का निर्धारण रिक्त पदों से तीन गुना तक रखा जाए। इसके बाद केंद्र सरकार कानूनी तौर पर यह व्यवस्था लागू करे कि देश का हरेक विश्वविद्यालय अपनी पसंद और जरूरत के अनुरूप इसी पैनल में से कुलपति का चयन करे। (आईसीसीआर जिन प्रोफेसरों को विदेश में पढ़ाने के लिए भेजती है, उनका चयन इसी प्रकार के पैनल से किया जाता है और पैनल में शामिल होने के लिए वर्ष में किसी भी वक्त आवेदन किया जा सकता है।)
इस व्यवस्था कई सुखद बदलाव आएंगे। जैसे, सरकारी विश्वविद्यालयों के कुलपति चयन के मामले में राजनीतिक दखल खत्म होगा और प्राइवेट विश्वविद्यालय भी मनमानी नहीं कर सकेंगे। इसका सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि अपेक्षाकृत कम उम्र के विद्वान कुलपति बन सकेंगे। इसकी एक वजह यह होगी कि बढ़ती उम्र के साथ तार्किक और बौद्धिक क्षमता में ह्रास होता है इसलिए लिखित मूल्यांकन और इंटरव्यू में ज्यादा उम्र के लोग उतनी बड़ी संख्या में सफल नहीं हो सकेंगे, जितनी बड़ी संख्या में वर्तमान में कुलपति पद को सुशोभित कर रहे हैं। कुलपति चयन में दो और बातों को ध्यान में रखे जाने की जरूरत है। चूंकि, कुलपति एक बड़े अकादमिक समुदाय को नेतृत्व प्रदान करता है तो क्या उसमें नेतृत्व के गुण हैं! दूसरी बात जिस क्षेत्र के विश्वविद्यालय में पद सौंपा जा रहा है क्या उस क्षेत्र की भाषिक और शैक्षिक योग्यता धारित करता है। इनके साथ ही हिंदी, अंग्रेजी और क्षेत्रीय भाषा में दक्षता की भी जरूरत होगी। यह बात भी ध्यान रखी जानी चाहिए कि कुलपति केवल शिक्षक नहीं होता, उसे अच्छा प्रशासक भी होना चाहिए। इसके लिए यह जरूरी है कि उसे वित्तीय और प्रशासनिक नियमों की अच्छी जानकारी हो।
कुलपति चयन की मौजूदा प्रक्रिया का निर्धारण यूजीसी ने किया है। सरकारी विश्वविद्यालयों के मामले में समिति का अध्यक्ष कुलाधिपति अथवा राज्यपाल द्वारा नामित होता है, एक सदस्य संबंधित विश्वविद्यालय की कार्य परिषद से नामित होता है। कुछ राज्यों में राज्य सरकार और उच्च न्यायालय द्वारा नामित सदस्य भी होता है। यह समिति आवेदक की योग्यता का मूल्यांकन करके अकादमिक, शैक्षणिक, प्रशासनिक आधार पर 3 या 5 सदस्यों का एक पैनल तैयार करती है। इस पैनल को राजभवन को भेज दिया जाता है और इनमें से किसी एक को कुलपति नियुक्ति कर दिया जाता है। इसके साथ ही उक्त समिति का दायित्व खत्म हो जाता है। इसके बाद यदि किसी कुलपति के मामले में कोई गड़बड़ी सामने आती है तो समिति का कोई उत्तरदायित्व नहीं बनता। यदि राज्य सरकारें शासनादेश या कार्यकारी आदेश के माध्यम से इस समिति को चयन में किसी भी गड़बड़ी का उत्तरदायी बना दें तो गलत लोगों के नाम पैनल में शामिल किए जाने मुश्किल हो जाएंगे। यदि कोई राजभवन या सरकार अपनी पसंद के व्यक्ति को कुलपति बनाना चाहते हैं तो इसमें कोई गंभीर बात नहीं है, लेकिन उनकी न्यूनतम योग्यता और क्षमता का मूल्यांकन तो होना ही चाहिए। यही बात प्राइवेट विश्वविद्यालयों के मामले में भी लागू होनी चाहिए।
सर्च कमेटी को स्थायी रूप देने का एक तरीका यह भी हो सकता है कि संबंधित सर्च कमेटी का प्रमुख राज्य के लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष को बना दिया जाए। राज्यपाल के सचिव को इस समिति का सदस्य सचिव रखा जाए। चूंकि, हरेक विश्वविद्यालय की कार्यपरिषद में कोई एक रिटायर्ड जज न्यायिक सदस्य होते हैं, उन्हें भी संबंधित विश्वविद्यालय की सर्च कमेटी का न्यायिक सदस्य बनाया जाए। साथ ही, राज्य सरकार में संबंधित विभाग के सचिव/प्रमुख सचिव और संबंधित राज्य के सबसे वरिष्ठ कुलपति को सदस्य बनाया जाए। इससे सर्च कमेटी के बार-बार गठन का झंझट खत्म होगा और इसका स्वरूप भी उच्च स्तर का हो जाएगा। (यह कमेटी निजी विश्वविद्यालयों के लिए भी उनके खर्च पर इसी प्रकार पैनल तैयार कर सकती है।) सर्च कमेटी का यह दायित्व हो कि जो आवेदन प्राप्त हुए हैं, उन्हें संबंधित वेबसाइट पर डाला जाए। इसका लाभ यह होगा कि यदि किसी ने कोई तथ्य छिपाया हो तो वह शुरू में ही सामने आ सकेगा। ठीक उसी प्रकार जैसे कि निर्वाचन आयोग चुनाव लड़ने वाले दावेदारों के मामले में करता है। और इस सारी प्रक्रिया के बाद जिस व्यक्ति का चयन हो, उसके अकादमिक, प्रशासनिक तथा अनुभव आदि के दस्तावेजों को पुनः जांच लिया जाए।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि किसी गलत व्यक्ति का चयन विश्वविद्यालय को बर्बाद करने का कारण बन सकता है, जबकि सुयोग्य व्यक्ति किसी भी मृत संस्था में प्राण फूंक सकता है। यह बात थोड़ी हास्यास्पद लग सकती है, लेकिन आवश्यक है कि चयन के बाद संबंधित कुलपति के लिए सरकार की प्रशासनिक और वित्तीय अकादमियों में लघुकालिक प्रशिक्षण दिया जाए ताकि बाद आने वाली समस्याओं से निपटने की योग्यता विकसित हो सके। यहां यह बात ध्यान में रखी जानी चाहिए कि अच्छा शिक्षक और अच्छा रिसर्चर होने से यह प्रमाणित नहीं होता कि संबंधित व्यक्ति अच्छा प्रशासक भी होगा ही इसलिए वित्तीय एवं प्रशासनिक मामलों में बुनियादी प्रशिक्षण की व्यवस्था लागू करने में कोई बुराई नहीं है।
निजी विश्वविद्यालयों में कुलपति के चयन के लिए राज्य सरकारों को अपने नियमों, परिनियमों को दोबारा निर्धारित किए जाने की जरूरत है क्योंकि विगत दो दशकों में जितनी तेजी से निजी विश्वविद्यालय स्थापित हुए हैं, उतनी तेजी से सरकारी विश्वविद्यालयों की संख्या नहीं बढ़ी है। अभी भले ही कुल पंजीकरण संख्या के मामले में सरकारी विश्वविद्यालय निजी विश्वविद्यालयों से आगे हैं, लेकिन अगले कुछ वर्षाें में कुल छात्र संख्या के मामले में निजी विश्वविद्यालय सरकारी संस्थाओं को पीछे छोड़ देंगे। ऐसे में निजी विश्वविद्यालयों में भी सुयोग्य लोग ही चुने जाएं, इसकी जिम्मेदारी भी प्रकारांतर से सरकार के पास ही होनी चाहिए। अंत में एक बात और, सभी कुलपतियों का कार्यकाल पांच साल होना चाहिए। (अधिकतम दो कार्यकाल के प्रतिबंध सहित।) तीन साल के कार्यकाल में शुरू के छह महीने चीजों को समझने में लगते हैं और आखिरी के छह महीने में कार्यकाल खत्म होने की चिंता सताने लगती है, ऐसे में काम करने का वक्त बहुत कम बचता है। पांच साल का वक्त इसलिए भी मिलना चाहिए ताकि नैक आदि से मूल्यांकन के बाद संबंधित व्यक्ति कुलपति के तौर पर अपनी उपलब्धियों को महसूस कर सके।
(यह लेख विद्वान मित्र प्रोफेसर गिरीश शर्मा जी, नई दिल्ली द्वारा प्रेरित किए जाने पर लिखा गया। उन्हें साधुवाद- डॉ. सुशील उपाध्याय)
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