Intresting Facts:दुनियाभर में एक से बढ़कर एक अद्भुत पुलों की कहानियां हैं। जो सिविल इंजीनियरिंग के बेहतरीन नमूनों पर आधारित हैं। जो अपनी किसी खास पहचान के लिए जाने जाते हैं। इन्हीं पुलों की कहानी में अपना भारत भी शामिल है। हालांकि भारत प्राचीन काल से ही पुलों की इंजीनियरिंग का महारथी माना गया है जिसमें हजारों साल पहले रामसेतु बना लेने से उसकी पहचान जुड़ी है। लेकिन पिछली 20वीं सदी में भी बने हुए एक पुल की इंजीनियरिंग से देश ही नहीं दुनिया भी हैरान है। इससे भी बड़ी हैरानी की बात यह है कि इस अनोखे पुल का उद्घाटन आज तक नहीं हुआ है। जी हां हम बात कर रहे हैं हावड़ा ब्रिज की। जो सिर्फ बिना नट-बोल्ट हुबली नदी के दोनों किनारे पर 280 फीट ऊंचे बने दो पिलरों पर टिका है। इसके अलावा इसमें कोई सपोर्ट नहीं है। तो आइए जानते हैं हावड़ा ब्रिज बनने के पीछे का सच…
जानें कब हुआ हावड़ा ब्रिज का निर्माण
दुनिया भर में प्रसिद्ध हावड़ा ब्रिज का निर्माण आजादी से पहले अंग्रेजों ने 1936-42 तक किया गया था। जो कोलकाता तथा हावड़ा के बीचोबीच बहती हुबली नदी पर बना है। आजादी की लड़ाई और बंगाल के अकाल का गवाह रहे इस ब्रिज को 3 फरवरी 1943 को लोकार्पित तो कर दिया गया। लेकिन इसका औपचारिक उद्घाटन कभी नहीं किया गया। जिस जगह इसे बनाया गया इससे पहले यहां एक पैंटून पुल था। जो 1874 से बना हुआ था। साल 1906 में हावडा़ रेलवे स्टेशन बनने के बाद एक नए पुल की जरूरत महसूस की गई। लेकिन प्रथम विश्वयुद्ध के कारण यह फैसला टल गया।
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टाटा के योगदान से हुआ निर्माण
हावड़ा ब्रिज उस जमाने में दुनिया का तीसरा सबसे लंबा पुल था. इसके बनाने में एक भी नट-बोल्ट का इस्तेमाल नहीं किया गया बल्कि पूरे पुल को बनाने में धातु की कीलों (रिवेट्स) का इस्तेमाल हुआ था। हावड़ा के इस पुल को बनाने का काम अंग्रेजों ने ब्रेथवेट-वर्न एंड जोसेप कंस्ट्रक्शन कंपनी को सौंपा था। जिसने इसे बनाने में कुल 26 हजार 500 टन स्टील का उपयोग किया। जिसमें से 23 हजार 500 टन स्टील की सप्लाई अकेले टाटा स्टील ने की थी।
जापान ने की थी बमबारी
दूसरे विश्व युद्ध में जापानी सेना ने इस पुल को उड़ा देने के मकसद से 1942 में बमबारी की थी, एक बम भी इस पुल के करीब आकर गिरा था। बावजूद इसके पुल को जरा भी नुकसान नहीं हुआ। लेकिन साल 2011 में एक रिसर्च रिपोर्ट से पता चला कि भारतीयों के गुटका थूकने के चलते पुल के पायों को नुकसान हो रहा है। इसके बाद 20 लाख की लागत से इन पायों को फाइबर से ढक दिया गया था।
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